कोशिशे चुपचाप करता हूँ सदा सपनो को पाने के लिए
चाह है कुछ कर दिखाऊ इस बिगड़े ज़माने के लिए
पर सोचता हूँ सपने मेरे साकार होंगे या नहीं
यह डर भी है इन गर्दिशो में खो न जाये हम कही
हर ओर से बस नफरतो की आंधिया बहती दिखी
हुस्न के बाजार में इज्जत मुझे बिकती दिखी
प्रेम भी परवान दौलत के लिए चढ़ता दिखा
जिन्दा एक इन्सान* कब्रिस्तान में गड़ता दिखा
कुछ तो हमें शाही महल में शान से सोते दिखे
कुछ कपकपाती रात में फुटपाथ पर रोते दिखे
कुछ रात को रंगीन करने में करोड़ो खोते दिखे
लोग कितने रात को भूंखे मुझे सोते दिखे
गुनेगार दौलत के भरोसे बचते दिखे कानून से
कितनी खाकी रंगी दिखी बेगुनाहों के खून से
गिरता दिखा है मूल्य अब इन्सानियत के बाजार का
बढता दिखा है भाव हर दुकानो में भ्रष्टाचार का
भ्रष्ट सारा तंत्र दिखता है मुझे इस देश में
भेड़िये भी घूमते दिखे इंसानों के भेष में
भावना बेकद्र दिखती बिखरते हुए जज्बात है
सूर्यास्त होता सत का अब बदी की होती रात है
इस तम में भला कौन अब मेरे सपनो को जान पायेगा
उँगली पकड़कर मेरी मंजिल तक मुझे पहुँचायेगा?
कोशिशे करता हूँ फिर भी पर बात कुछ बनती नहीं
यह मूक बहरी अंधी दुनिया मेरी कुछ सुनती नहीं
कोशिशे कर कर के थक कर बैठा हूँ हारा हुआ
तनहा बड़ा लगता हूँ मैं हालात का मारा हुआ
सोचता हूँ तोड दूँ सपनो को पर सपनो में मेरी चाह है
पर शायद अब इस देश में सपने देखना भी गुनाह है।
संतोष कुमार
*इस पंक्ति में इन्सान से आशय उस सच्चे प्रेमी से है जिसका प्रेम तो सच्चा है परन्तु वह एक गरीब इन्सान है