बहुत समय पहले की बात है, एक धनी व्यापारी और उसकी पत्नी रहते थे। वे बहुत खुश थे, लेकिन उनका एक ही बच्चा था। उनके पास एक गाय भी थी, और उनका नौकर मोहन पूरे मन से उसकी देखभाल करता था।
मोहन प्रतिदिन गाय की देखभाल करता, उसे चारा और पानी देता। और सुबह-शाम वह गाय का दूध निकालता और उसे व्यापारी के घर भेज देता।
एक दिन व्यापारी और उसकी पत्नी ने तीर्थ यात्रा पर जाने का फैसला किया। जाने से पहले व्यापारी ने मोहन को समझाया, “मोहन भाई, हमारे जाने के बाद गाय की देखभाल करना, उसका दूध निकालना और उसे अपने घर ले आना। हमें वापस आने में करीब एक महीना लगेगा, चिंता मत करना।
व्यापारी और उसकी पत्नी यात्रा के लिए निकल पड़े। मोहन ने पूरे मन से वैसा ही किया जैसा उसे बताया गया था। उसने गाय की देखभाल की, उसका दूध निकाला और उसे अपने घर ले जाकर आँगन में फैला दिया। घर के आंगन में फैलाए जाने के बाद, आस-पड़ोस के कुत्ते और पिल्ले आकर उसे पी जाते।
एक दिन मोहन की पत्नी ने उसे टोका, “तुम आंगन में दूध क्यों गिराते हो? तुम्हें लगता है इससे कोई फायदा होगा? यह दूध हमारे बच्चों को पिलाओ तो ज्यादा अच्छा रहेगा। सेठ जी ने कहा था कि दूध घर लाना है, बरबाद नहीं करना है।”
मोहन ने कुछ नहीं कहा, बस थोड़ा सा मुस्कुराया और अपनी बात पूरी करने के बजाय पत्नी की बात को अनसुना कर दिया। पत्नी फिर भी कुछ नहीं बोली और चुपचाप अपना काम करती रही।
यह एक महीने तक चलता रहा। व्यापारी और उसकी पत्नी तीर्थ यात्रा से वापस आ गए। मोहन ने गाय का दूध दुहकर व्यापारी के घर भेज दिया। लेकिन इस बार जब वह घर लौटा तो आंगन में गिराने के लिए दूध नहीं था। फिर भी मोहल्ले के कुत्ते और पिल्ले समय पर आ गए और आंगन में इकट्ठे हो गए। दूध न मिलने पर वे जोर-जोर से भौंकने और रोने लगे।
मोहन की पत्नी ने यह नजारा देखा और अपने पति से पूछा, “क्या हुआ? ये कुत्ते क्यों रो रहे हैं?”
मोहन मुस्कुराया और बोला, “देखा, इसीलिए तो मैंने बच्चों को वह दूध नहीं पीने दिया। अगर उन्होंने वह दूध पी लिया होता तो आज इसी तरह रो रहे होते।” अब मोहन की पत्नी को समझ में आ गया कि जो भी हमें अपनी मेहनत और हक से मिलता है, वही सही है। हमें अपना जीवन स्वाभिमान और गरिमा के साथ जीना चाहिए।