अतीत

 

Past

कहते हैं कि बच्चा भविष्य के बारे में सोचता है बूढ़ा अतीत के बारे में,और युवा वर्ग वर्तमान  में जीने कि कोशिश करता है। हर इंसान की सफलता असफलता कहीं न कही उसके अतीत का ही एक परिणाम होती है। इंसान चाह कर भी अपने अतीत को छोड़ नहीं सकता क्योकि वह उस अतीत कि ही एक रचना है।

मेरे माता पिता बहुत ही सुखी एवं समृद्ध परिवार के थे। दादा जी का गाँव में बड़ा मान सम्मान था, उनका इतना रुतबा था। मेरे पिताजी मेरे दादाजी की इकलौती संतान थे। दादाजी की तरह ही सारे लोग मेरे पिता जी की भी बड़ी इज्जत करते थे।

मैंने अपने दादा जी को सिर्फ तस्वीरों में ही देखा था, मेरी माँ बताती थी कि मेरे पिता जी के बिवाह के उपरांत ही दादा जी का देहावसान हो गया था, उस वक्त मैं माँ के गर्भ में था।

मैं भी अपने पिता जी की तरह अपने खानदान का इकलौता चिराग हूँ, मेरे पैदा होने के बाद मेरी माँ ने दुबारा किसी संतान को जन्म नहीं दिया। पिता जी मुझे बहुत प्यार करते थे। जब सिर्फ चलने कि कोशिश करता था तभी से पिता जी ने मेरे लिए शहर से नई बस्तुऍ खिलौने इत्यादि लाने लगे थे, घर का एक कमरा सिर्फ मेरे खिलौनो से भरा होता था। गॉव के सारे बच्चे मेरी बहुत इज्जत करते थे, यू कह लीजिये की बच्चो कि हर टोली का मैं ही लीडर हुआ करता था।

मेरे माता पिता कभी भी मुझे मारना तो दूर जोर से डाटते भी नहीं थे, क्योकि मैं उनकी इकलौती संतान था। मेरे कुछ मांगने से पहले ही वह वस्तु हाजिर हो जाती। रूपये पैसे कि कोई कमी नहीं थी। पिता जी जमींदार थे ही, घर में दो चार गांये भैसे हमेशा दूध देने वाली होती थीं।

मेरे पिता जी मेरे दादा की ही तरह धर्मात्मा थे, वे कभी भी किसी का दुःख नहीं देख सकते थे। यदि द्वार पर कोई दुखिया या भिखारी आता, वे उसकी भरपूर सहयता करते। गांव के सभी लोग मेरे पिता जी से बहुत खुश रहते थे।

… इतना कह कर ईश्वर काका कि आँखों में आशु आ गए, वे अपने कांपते हाथों से बहते हुए आशुओ को पोछने लगे। वे ऐसे पड़ाव पर थे जहाँ पर जिंदगी रही तो हर इंसान को गुजरना पड़ता है, क्योकि जिंदगी अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए यही से गुजरती है, जहाँ पर अगर बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा तो अतीत के खयालो के शिवाय कोई और ख्वाब ही नहीं आते। ईश्वर काका भी अपने उन्ही अतीत की यादो को अपने मन रूपी बगीचे में अपने बहते हुए आशुओं से सीच रहे थे। ऐसे हालात में माया प्रबल हो जाती है, कोई अगर पास बैठा है तो बिना किसी संकोच के वह अपने मन की सारी बात कह देना चाहता है, क्योकि वह भलीभांति जानता है कि न जाने किस घड़ी इस शाम हो चुकी जिंदगी का सूरज डूब जाये और कभी न जागने वाली  निद्रा में ये नश्वर शरीर सदा के लिए सो जाये।

जब वे थोड़े शांत हुए तो मैंने उनसे कुछ और बाते जानने कि कोशिश की जो वे खुद बताना चाह रहे थे। ईश्वर काका ने आगे कि कहानी कुछ इस तरह सुनाई –

मेरे माता पिता बहुत ही दयालु और अच्छे बिचारो के थे परन्तु मैं उनसे अलग था। मैं बहुत ही शरारती हो गया था। छोटी छोटी बातो को लेकर लड़ाई कर लेना अपने कक्षा के बच्चो को पीटना मेरी आदत हो गयी थी। मैं अपने माँ बाप को छोड़कर किसी से डरता नहीं था। गाँव के बड़े बुजुर्गो को चिढ़ाना, उनसे बत्तमीजी से बात करने में मुझे कोई हिचक नहीं होती थी। लोग पिता जी इज्जत करते थे इसलिए कभी कोई उनसे मेरी शिकायत नहीं करता था। इससे मेरा मन काफी बढ़ गया था परन्तु धीरे धीरे मेरी ये आदते लोगो को बहुत ही बुरी लगने लगीं थीं।

मेरे साथ मेरे गाँव के कई बच्चे पढ़ते थे जिनमें से एक था रमेश। वह एक बहुत ही साधारण परिवार से था। परिवार में माँ बाप तीन भाई बहन जिसमे रमेश अकेला था और उसकी दो बहन थी। पिता जी किसानी करते थे, घर का खर्चा बड़ी मुश्किल से चल पाता था। फिर भी रमेश के पिता चाहते थे कि उनका बेटा पढ़े। पैसे की तंगी के चलते रमेश को बड़ी बड़ी मुश्किलो का सामना करना पड़ता था, वह पढाई के साथ साथ अपने पिता की भी उनके काम में मदद किया करता था। वह पढने में भी अव्वल था, परन्तु मैं उसे हमेशा पछाड़ने कि कोशिश करता था। मेरे पास पढाई की सुविधा उससे कहीं ज्यादा थी, पिता जी ने मास्टर जी से कह कर मेरा ट्यूसन भी लगवा दिया था, परन्तु रमेश के पास न ही ट्यूसन थी और न ही उसके घर में कोई पढ़ाने वाला, पर फिर भी कभी कभी उसके नंबर कक्षा में सबसे अधिक आते  थे। रमेश मेरा दोस्त था फिर भी मैं उसका मजाक उड़ाने से बाज नहीं आता था। इस बात से रमेश कभी कभी मुझसे चिढ जाता था, परन्तु कोई जबाब नहीं देता था।

बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद मै और रमेश दोनों ने एक साथ डिग्री कालेज में दाखिला करवाया। उस कॉलेज में अपने गाँव कि तरफ से सिर्फ मैं और रमेश ही थे और वह अंजान कॉलेज, इसलिए दोनों का एक साथ रहना लाजमी था। बाद में धीरे धीरे हमारे ढेर सारे मित्र बन गए।

हमारी बैच में सिर्फ चार लोग थे मैं रमेश बाकी दो हमारे कॉलेज के लड़के। पोस्ट ऑफिस में बड़े बाबू के लिए एक ही वैकेंसी खाली थी। उस पोस्ट के लिए हम चारो ने परीक्षा दी।  रमेश फर्स्ट आया मैं सेकंड, बाकी  दोनों का नाम लिस्ट में था ही नहीं। नंबर के हिसाब से नौकरी रमेश को ही मिलनी थी यह बात मेरे बर्दास्त से बाहर थी कि मेरे होते हुए रमेश को नौकरी कैसे मिल सकती थी। बहाली होने के लिए हम  दोनों का साक्षात्कार होना था। अभी यह तय न था कि नौकरी किसे मिलेगी, परन्तु मैं मन ही  मन खुद को रमेश से आँकने लगा था, मेरा मन खुद को कमजोर पाने लगा था। पहली हार तो नंबर आने के बाद थी और दूसरी हार में तो जिंदगी ही पलट जायेगी। मैं बहुत घबराया हुआ था उस समय खुद के हारने का नहीं बल्कि रमेश कही जीत न जाये इस बात कि चिंता थी। मैं घर पर चुपचाप बैठा था। पिता जी ने पूछा “क्या हुआ ईश्वर इतना चिंतित क्यों लग रहे हो” मैंने जबाब में “कुछ नहीं बस ऐसे ही” कह कर बात को टाल दिया। पर चिंता के बादल अब भी मेरे दिलो दिमाग पर छाये हुए थे। ऐसे लग रहा था बहुत बड़ा शैलाब आने वाला था।

रात में नींद नहीं आ रही थी मन में बस यही खयाल आ रहा था कि दो दिन बाद हमारा साक्षात्कार है, अगर मैं इसमें भी फेल हो गया तो नौकरी रमेश को मिल जायेगी। पर मैं ऐसा नहीं होने देना चाहता था, यह नौकरी मिले तो बस मुझे मिले वरना किसी को न मिले  और रमेश को तो हरगिज नहीं।

मुझे धीरे धीरे एहसास हो गया था की साक्षात्कार में रमेश ही पास होगा। मैं खुद को कमजोर समझने लगा था। पर मैं जीतना चाहता था उस रमेश से जिससे कभी मैंने हार नहीं मानी थी। वह गरीब परिवार का लड़का मुझसे भला कैसे जीत सकता था, मैं एक अच्छे घराने का इकलौता वारिश मैं खुद को हारा हुआ कैसे देखता।

मेरे जीतने के सिर्फ दो रास्ते थे पहला या तो मैं साक्षात्कार में पास हो जाऊ दूसरा या फिर रमेश फेल हो जाये। मेरा पास होना तो मुश्किल था और रमेश का फेल होना भी नामुंकिन था। अब तो बस एक ही रास्ता बचा था मुझे अपने धन दौलत का फायदा उठाना था। मैंने पिता जी से पैसो कि माँग की। उन्होंने पूँछा इतने सारे पैसे किसलिए चाहिए, मैंने कहाँ कुछ जरुरी काम है। पिता जी ने ज्यादा कुछ पूंछे वगैर मुझे पैसे दे दिए।

मैं साक्षात्कार के एक दिन पहले ही परीक्षक से उनके कार्यालय में जाकर मिला। पहले मैंने नमस्कार किया, फिर बैठ कर थोड़ी देर बातचीत की, जब मैं समझ गया कि परीक्षक लेनदेन करके मुझे पास कर सकता है तो मैंने धीरे से पैसे निकाले और टेबल पर रखा दिए और अगले दिन होने वाले साक्षात्कार के बारे में बताया। और कहा कि यह नौकरी सिर्फ मुझे ही चाहिए। मेरी उम्मीद सच हो गयी वह मान गया। और बोला कल क्या मैं तुम्हे अभी पास कर देता।

अगले दिन मैं और रमेश दोनों सत्क्षात्कार के लिए गए, सत्क्षात्कार हुआ, कुछ दिन बाद परीक्षाफल आया, होना वही था जो पहले से ही तय था, मैं पास हो गया था। मेरे चेहरे पर ईर्ष्या भरी खुशी थी, क्योकि रमेश फेल हो गया था, मुझसे हार गया था।

वक्त बीतता गया, रमेश को यह नौकरी तो मिली नहीं इसके बाद तो कम्पटीशन का दौर शुरू हो गया। घूस देकर नौकरी मिलती या फिर नम्बर सबसे अव्वल आने पर। बदकिस्मती से रमेश हर बार फेल हो जाता, शायद पहली हार ने रमेश के मन को कमजोर कर दिया था। धीरे धीरे कई साल बीत गए रमेश को नौकरी नहीं मिली। उसके पिता जी कब तक काम करते, कब तक उसे पढने का मौका देते। घर की हालत बद से बत्तर हो रही थी। खर्च बढ़ रहे थे, बेटियों की भी शादी करनी थी। नौकरी के लिए रिश्वत भी नहीं दे सकते थे, भला इतनी रकम कहाँ से लाते। अंत में हार कर रमेश के पिता जी ने रमेश से कहाँ “रमेश अब इस नौकरी वौकरी के चक्कर में समय बर्बाद मत करो, हालात को देखते हुए तुम्हें अब कोई काम  धंधा करना चाहिए, क्योकि बेटा, महंगाई  इतनी हो गयी है की किसानी में कुछ रखा नहीं है, जुताई बुवाई से लेकर बीज और सिंचाई तक सब पैसे से ही होता है और जो रात दिन मेहनत करो सो अलग। पैदावार कितनी होती है यह तुम देख ही रहे हो। इसलिए मेरी बात मानो शहर चले जाओ, दो चार पैसे कमाओगे तो मुझे भी थोड़ी राहत मिलेगी ।”

रमेश किसी जानने वाले के साथ शहर चला गया। शहर में उसे एक कपडे की फैक्ट्री में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गयी। परिवार का खर्च वहन करने का एक जरिया मिल गया था। अब पढाई लिखाई कि बाते धीरे धीरे भुलाती चली गयी अब तो सिर्फ जिम्मेदारियां और उनकी पूर्ति करने के लिए आमदनी के श्रोत के अलावा कुछ और न दिखता था। वक्त बीतता गया। जब कभी भी रमेश शहर से गॉव आता, गांव के नुक्कड़ पर मुलाकात होती तो मैं उसपर छीटे कसने से बाज नहीं आता।

अब तो शहर वाले हो गए हो भैया अब क्या कहना आप का, हम गाँव वाले कहाँ दिखेंगे आपको। ” वह कभी कभी जबाब देकर  और कभी बिना कुछ बोले वहाँ से चला जाता।

समय बीतता गया, मेरे माता पिता चाहते थे कि मेरी शादी हो जाये घर में बहु आये माँ का भी हाथ बटाये। पर मुझे कोई लड़की पसंद ही नहीं आ रही थी। मेरी शादी के प्रति मेरे माता पिता कि चिंता बढ़ती जा रही थी, फिर मैंने भी मन बना लिया कि शादी तो करनी ही है क्यों न समय रहते हो जाये, और माता पिता भी यही चाहते थे।

कुछ दिन बाद भानुप्रताप की इकलौती बेटी इंद्रावती का रिस्ता मेरे लिए आया। हमारे
परिवार के साथ साथ यह रिस्ता मुझे भी पसंद था, क्योकि इंद्रावती मुझे बहुत अच्छी लगी।

हमारा विवाह हो गया। इंद्रावती हमारे घर में बहु बनकर आई। हमारे माता पिता बहुत प्रसन्न थे। हमारे परिवार रिस्तेदारो में खुशियां मनाई जा रही थी। कुछ दिन बाद सुनने में आया कि रमेश की भी शादी हो गयी।

“ईश्वर काका आपकी पत्नी और बच्चे कहाँ है ” गहरी साँस लेते हुए मैंने ईश्वर काका से पूछा ?

एक लम्बी साँस लेते हुए ईश्वर काका ने अपने दोनों हाथों से अपनी आखों को मलने लगे। शायद अतीत की बाते वर्त्तमान को झकझोर रहीं थी और यही कह रहीं थीं कि अगर जीवन है तो भविष्य निश्चित है और भविष्य के चक्कर में वर्त्तमान क्यों ख़राब करते हो। मैंने कुछ आगे जानने कि कोशिश कि और फिर से पूंछा  “काका आपके के बच्चे कहाँ है”

ईश्वर काका ने अपनी नजरें असमान की  तरफ उठाई और हवा के सहारे उड़ रहे बादलो को देखने लगे, फिर अपनी लड़खड़ाती जुबान से बोले, मेरे बच्चे नहीं है। मैं अपने माँ बाप का इकलौता वारिस था  और आज मेरे बाद इस खानदान का कोई वारिस नहीं है।

माँ बाप तो पहले ही चले गए, कुछ सालो के बाद पत्नी, मैं अकेला बचा गया, पता  नहीं किस पाप को भोगने के लिए। नौकरी से रिटायर हुए कई साल बीत गए, पर न जाने जिंदगी से कब रिटायर होउंगा।

इतना सुनकर मुझे समझ में आने लगा था कि आखिर वे अपने दोस्त रमेश की बाते मुझे क्यों बता रहे थे जब कि उस बात का कोई तुक नहीं था। उनके मन में शायद उस किये का बहुत पछतावा था, वे दुनिया से जाने से पहले अपने मन को हल्का कर लेना चाहते थे।

उन्होंने मुझसे कहा, “बेटा मेरा एक काम करोगे” मैंने कहाँ “हाँ बताइये काका क्या काम है” उन्होंने कहा -मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है मेरे बाद इस जमीन जायदाद को कौन संभालेगा। इसलिए मैं ये सारी जमीन जायदाद रमेश के नाम करना चाहता हूँ।

असली जीत तब होती है जब इंसान अपनों के साथ मिल कर लड़ाई लड़ता है तब नहीं जब वो अकेला हो, अकेला भला क्या लड़ाई लड़ेगा।

ईश्वर काका की सारी बाते मुझे बहुत अजीब लग रहीं थीं, वे ऐसा क्यों चाहते थे? क्या वे जान गए थे कि वाकई में जिंदगी में कुछ नहीं है कोई कुछ भी साथ नहीं ले जायेगा ?

वे अपने मन में लगे अतीत के दागों को अपने वर्त्तमान के पश्चाताप के अश्रु रूपी जल से धो  देना चाहते थे जिससे तृण मात्र बचे भविष्य को शांति से जिया जा सके, ताकि आँखे बंद होते समय कोई पश्चाताप शेष न रहे।

ईश्वर काका अकेले चलते फिरने में असमर्थ थे, रोटी पकाने के लिए पड़ोस कि एक छोटी बच्ची आती और पका कर चली जाती, बदले में काका उसे थोड़े  बहुत पैसे दे देते। वे बहुत बूढ़े  हो गए थे मुंह में दांत भी नहीं बचे थे, जैसे तैसे  दाल में भिगो कर रोटियाँ खाते थे।

ईश्वर काका ने कहा “बेटा मेरा एक काम करोगे ” मैंने कहा -बताइये काका।

मैं अकेले बिना सहारे के ज्यादा दूर चल नहीं सकता, मैं बगीचे में जाना चाहता हूँ और अपने खेतों को देखना चाहता हूँ, कई महीने हो गए सब कुछ  निहारे हुए -ईश्वर काका ने अपनी लड़खड़ाती जुबान से आग्रहपूर्ण तरीके से कहा। मैंने कहा ठीक है काका चलिए मैं ले चलता हूँ आपको।

ईश्वर काका ने एक हाथ से सोटी पकड़ी और दूसरे हाथ से मेरा कन्धा, धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। बगीचा  थोड़ी ही दूरी पर था पर हमारी  चाल धीमी थी इसलिए थोडा ज्यादा वक्त लगा और हम बगीचे में पहुँच गए। काका ने अपनी नजर उठाकर ऊँचे ऊँचे पेड़ो को निहारने लगे, कुछ देर बाद नजरें नीचे करते हुए बोले – ये पेड़ पिता जी के साथ मिलकर हमने
अपने हाथो से लगाया था, उस समय मैं सोच रहा था कि ये पेड़ न जाने कब बड़े होंगे और इसमें फल लगेंगे ?  और आज देखो ये कितने बड़े है कि अब मैं इनपर चढ़ भी नहीं सकता, इनके फल भी नहीं तोड़ सकता।

हम कुछ आगे बढे, एक छोटी सी झोपड़ी बनी थी, वह काफी टूट चुकी थी कई साल
पुरानी लग रही थी। काका उस झोपड़ी के पास जाकर रुक गए और बोले-यह झोपड़ी मेरी पत्नी ने अपने हाथों से बनाई थी, वह मुझे हर छुट्टी वाले दिन दोपहर को यहाँ लेके आती थी, हम दोनों यहाँ बैठ कर घंटो बाते किया करते थे, एक दूसरे को छेड़ते थे, तरह तरह के सवाल जबाब किया करते थे,उन पलों  का एहसास आज भी मेरे सीने में तरोताजा है। शीतल हवा चलती थी, जिसमे साँस लेने से पूरा रोम रोम शीतल हो जाता था। मेरी पत्नी मुझे बहुत प्रेम करती थी, और शायद मैं भी। इस झोपड़ी में बैठकर हमने साथ जीने मरने की कसमें खायी थी, पर उसने वह कसम तोड़ दिया और मुझे छोड़कर अकेले चली गयी, इतना कहते ही काका कि आखों से आशू छलक पड़े। मैं उन्हें धीरज बधाने लगा, इससे ज्यादा मैं कर भी क्या सकता था,उस समय मैं उनकी भावनाओं को समझ सकता था।

फिर मुझे तालाब के पास चलने को कहा, मैं उन्हें सहारा देते हुए तालाब के पास लेकर गया। वे थोड़ी देर के लिए वहाँ बैठ गए, मैं भी उनके बगल में बैठ गया। आसमान में बादल छाये हुए थे, मन को शीतल कर देने वाली हवा बह रही थी। वह जगह पृथ्वी पर किसी स्वर्ग के होने के जैसे लग रही थी। ईश्वर काका ने कहा, मैं जब छोटा था, हमेशा इसी तालाब में नाहाता था इसके लिए कभी कभी माँ की डांट भी सुननी पड़ती थी।

वे अपने अतीत की यादों में खो गए थे बचपन से लेकर जवानी की ढेर सारी बाते बताते गए, और मैं बैठा हाँ में हाँ मिला रहा था। काफी देर बर्तालाप के बाद हम घर की तरफ चल दिए। परछाइयाँ लम्बी हो चली थी, सूरज की लालिमा बढ़ने लगीं थी।

घर पहुँचने के बाद मैंने ईश्वर काका से आग्रह किया की मैं अब घर जाऊंगा शाम हो रही है मेरे घर वाले मेरा इंतजार कर रहे होंगे। मैं कल सुबह आपसे मिलने फिर आऊंगा। ” जरूर आना ” अपनी लडखडाती आवाज में काका ने कहा, “जरूर आऊंगा काका”इतना कहकर उनके पैरो को हाथ लगाकर मैं अपने घर की तरफ जाने लगा। फिर से काका की आवाज सुनाई पड़ी “कल जरूर आना”, हाँ काका जरूर आऊंगा, मैंने मुड़ कर अपनी आवाज ऊँची करके जवाब दिया।

सुबह हुई दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद इश्वर काका के यहॉँ  उनसे मिलने के लिये चल पड़ा।

मैं उनके घर से काफी दूर था  तभी मैंने देखा ईश्वर काका के घर पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी, धीरे धीरे मैं भीड़ के नजदीक पहुँचने लगा, तभी मैंने भीड़ के बीच में देखा की एक शख्श सफ़ेद रंग की चादर ओढ़े जमीन पर लेटा है, सारे लोग उसे हो देख कर आपस में बाते कर रहे थे।  जब नजदीक गया तो मैंने देखा चादर में लिपटा वह व्यक्ति कोई और नहीं ईश्वर काका ही थे।  अब वे इस दुनिया में नहीं रहे। मैं उनके मृत चेहरे को देख रहा था, देखते देखते अचानक मेरी आखो से आशुओ को धार बहने लगी, मैं खुद को सम्भालने की कोशिश कर रहा था पर असफल रहा।

कुछ लोगो ने मिलकर अर्थी बनाई, ईश्वर काका के मृत शरीर को नहलाया गया, अर्थी पर लिटाकर कफ़न से ढक दिया।  चार लोग मिलकर लाश को उठाकर चलने लगे, पीछे चलने वाले लोग जोर जोर से बोलने लगे “राम नाम सत्य है, सब की यही गती  है” ऐसा कहकर लोग लाश को सुना रहे थे या आपस में एक दूसरे को एहसास दिलाना चाह रहे थे की एक न एक दिन सब की यही गती होने वाली है, पता नहीं। पर यह तो सुनिश्चित है की सबकी मृत्यु एक न एक दिन आनी है, जो पैदा हुआ है वह मरेगा, रहेंगी तो सिर्फ उसके अतीत की कुछ यादें।

मैं बहुत देर एक ही जगह खड़ा रहा, दिमाग में पता नहीं कितनी बाते आ रही थी।  मैं सोच रहा था की अगर कल मैं न आया होता तो ईश्वर काका अपनी सारी बाते किससे कहते, उन्हें बगीचे में कौन लेके जाता, वहाँ गए वगैर वे  अतीत से जुडी वस्तुओं को कैसे देख पाते। अगर मेरी जगह कोई और आया होता तो क्या वह उनकी सारी बाते सुनता, उन्हें बगीचे में ले जाता, अगर वह थोड़ा अकड़ू होता तो क्या ईश्वर काका उससे भी अपने मन की सारी बाते कह पाते।

ईश्वर काका को गुजरे हुए आज कई साल बीत गए। फिर भी उनकी शक्ल हूबहू याद है। मैं सोचता हूँ की इंसान को अपनी जिंदगी में सारी ख्वाइशें पूरी कर लेनी चाहिए, और हमेशा ऐसे कर्म करने चाहिए की जिसका पछतावा न हो। वक्त बहुत बलवान होता है। यह कभी भी किसी के लिए न ही रुकता है और न ही तेज भागता है बस निरंतर एक चाल से चलता रहता है। समय का रुकना भागना तो हमारे मन का वहम मात्र होता है। जवानी के दिनों में इंसान बहुत से ऐसे  काम कर जाता है जो सही नहीं होता, करते समय सही लगता है। वक्त बीतने के साथ अगर जिंदगी रही तो जब वह असहाय अवस्था में बिस्तर पर पड़ा अतीत के पन्नो को पलटता रहता है। अगर अच्छे कर्म किये तो  संतुष्टि और यदि बुरे कर्म किये है दूसरो को, अपने से कमजोरों को परेशान किया है तो सिर्फ पछतवा ही आता है। उस वक्त मन में बस यही आता है की जिंदगी तो एक न एक दिन मौत में तब्दील हो ही जाती है तो क्यों न कुछ ऐसे कर्म करते जिससे मन को शांति और सुकून मिलता और बिना किसी ग्लानि के साथ इस दुनिया से रुकसत होते।  ……

 

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