दीवार की कील Diwar ki Keel
Diwar ki Keel बहुत समय पहले एक गाँव में एक लड़का रहता था। वह बहुत गुस्से में रहता था, छोटी-छोटी बातों पर बहुत गुस्सा हो जाता था और लोगों को अच्छा-बुरा कहता था। उसकी इस आदत से परेशान होकर एक दिन उसके पिता ने उसे कीलों से भरा थैला दिया और कहा, अब जब भी तुम्हें गुस्सा आए, तुम इस थैले में से एक कील निकालना और जाकर सामने की दीवार में गाड़ देना।
दीवार की कील
पहले दिन लड़के ने चालीस बार क्रोध किया और दिवार में इतनी ही कीलें ठोक दीं। लेकिन धीरे-धीरे कीलों की संख्या कम होने लगी, उसे लगने लगा कि कीलों को ठोकने में इतना प्रयास करने से अच्छा है कि अपने क्रोध पर काबू पा लिया जाए। कुछ ही हफ्तों में उन्होंने अपने गुस्से पर काफी हद तक काबू करना सीख लिया। और फिर एक दिन ऐसा आया कि उस लड़के ने पूरे दिन में एक बार भी क्रोध नहीं किया।
जब उसने यह बात अपने पिता को बताई तो उसने फिर उसे एक कार्य दिया, उसने कहा, “अब हर दिन जब तुम एक बार भी क्रोधित न हो, तो इस दीवार में से एक कील निकाल देना।”
लड़के ने वैसा ही किया और बहुत दिनों के बाद वह दिन भी आया जब लड़के ने दीवार की आखिरी कील भी हटा दी और खुशी-खुशी अपने पिता को यह बात बता दी।
तब पिता ने उसका हाथ पकड़कर दीवार के पास ले जाकर कहा, “बेटा, तुमने बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन क्या तुम इस दीवार में छेद देख पा रहे हो। अब वह दीवार कभी भी वैसी नहीं हो सकती जैसी पहले थी। जब तुम गुस्से में कुछ कहते हो, तो वे शब्द सामने वाले पर भी इसी तरह गहरे घाव छोड़ जाते हैं।
तो अगली बार अपना गुस्सा करने से पहले सोचिए कि क्या आप भी उस दीवार में और कीलें ठोकना चाहते हैं ?