एक बार महात्मा बुद्ध के एक शिष्य ने पूछा कि भगवन, अगर किसी व्यक्ति का बनता हुआ काम अचानक ख़राब हो जाये या किसी के साथ अचानक उत्पन्न हुए विवाद से वह बहुत परेशान हो जाये और उसका विवेक काम नहीं करे, तो ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए ? और अक्सर ऐसी स्थिति में उसे क्रोध भी बहुत आता है। अगर वह बहुत क्रोधित है तो वह ऐसी स्थिति पर कैसे विजय प्राप्त कर सकता है?
महात्मा बुद्ध को उस समय कहीं जाना था। तो उन्होंने उस शिष्य को भी साथ चलने के लिए कहा और बोले कि तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर मैं रास्ते में दूंगा। वह शिष्य महात्मा बुद्ध के साथ उनके रथ बैठकर चल पड़ा।
रास्ते में एक पानी की झील थी जिसका एक किनारा बहुत सकरा था और उसका पानी उसी सकरे रास्ते से होकर दूसरी तरफ बहता था। और आने जाने का रास्ता भी उसी सकरे किनारे से था। महात्मा बुद्ध का रथ उधर से निकला तो रथ का पहिया पानी में चला गया।
घोड़ो ने जोर लगाकर रथ को पानी से बाहर निकाल लिया। पानी को पार करते ही थोड़ी दूर जाकर महात्मा बुद्ध ने सारथी को रोकने के लिए कहा। रथ रुक गया। महात्मा बुद्ध ने अपने उस शिष्य को कहा की जाओ इस बर्तन में जल भरकर ले आओ।
शिष्य बर्तन लेकर जल भरने गया। रथ का पहिया पानी में घुसने की वजह से काफी दूर तक का पानी मटमैला हो गया था। वह शिष्य बिना पानी भरे ही वापस आ गया और बोला -भगवन रथ के गुजरने की वजह से झील के किनारे का पानी गन्दा हो गया है। और झील के बाकी जगह से पानी भरना सम्भव नहीं है।
महात्मा बुद्ध ने कहा तुम थोड़ी देर रूककर दुबारा जाओ, इस बार तुम्हें साफ जल मिल जायेगा। शिष्य बर्तन लेकर दुबारा गया। उसके वहां पहुंचने पर वहां का पानी काफी साफ हो गया था। वह पानी भरकर वापस आ गया।
महात्मा बुद्ध ने कहा क्या साफ जल मिला ?
हाँ भगवन, साफ जल मिल गया – शिष्य ने जबाब दिया।
पहली बार जब तुम गए थे तो पानी गन्दा था और इस बार साफ कैसे हो गया -महात्मा बुद्ध ने पूछा।
शिष्य ने कहा भगवन जब मैं पहली बार पानी लेने गया था तो पानी गन्दा था क्योंकि रथ का पहिया कुछ क्षण पहले ही उसमें घुसा था। और जब मैं दुबारा गया तो काफी देर हो गयी थी जिसकी वजह से पानी का कीचड़ वापस नीचे बैठ गया था जिसकी वजह से जल साफ़ हो गया।
महात्मा बुद्ध मुस्कराये और बोले – तुम्हारे प्रश्न का भी यही उत्तर है। जिस प्रकार अचानक साफ जल में रथ का पहिया पड़ने से पानी कीचड़ युक्त हो गया, उसी प्रकार जीवन के शांति भरे दिनों में अचानक हुई घटना से सब कुछ अस्तव्यक्त हो जाता है। मनुष्य का मन भी झील के जल के सामान होता है। उसमें किसी के द्वारा फेके गए शब्द रूपी कंकर पत्थर, या गलत परिस्थिति रूपी रथ के पहिये के पड़ जाने से उसका मन भी घबराहट, क्रोध, डर और आवेश रूपी कीचड़ से भर जाता है। और उसे कुछ भी साफ नजर नहीं आता।
ऐसी परिस्थिति में मनुष्य को कुछ वक्त शांत भाव से अच्छे वक्त का इंतजार करना चाहिए। जैसे थोड़ा वक्त बीत जाने के उपरांत तुम्हे साफ जल मिल गया, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के शांत रहकर इंतजार करने के पश्चात उसे उस समस्या का कोई न कोई उपाय अवश्य मिल जाता है।
व्यक्ति जब बहुत अधिक क्रोध में होता है तो उसका विवेक शून्य हो जाता है। उस वक्त वह कोई भी निर्णय सही तरीके से नहीं ले पाता। वह भावनाओं और आवेश के वशीभूत होता है। और वह जो भी निर्णय या कार्य करता है वह आवेश में आकर करता है जो सही नहीं होता। ऐसे में उसे थोड़ा वक्त शांत होने की आवश्यकता होती है।
थोड़ा वक्त शांत होने से पानी की ही तरह उसके मन की सारी गंदगी भी नीचे बैठ जाती है। और उसका क्रोध शांत होते ही उसका मन भी साफ़ हो जाता है। और उसका विवेक फिर से सही निर्णय लेने के लिए तैयार हो जाता है। फिर वह सही फैसले और सही कार्य कर सकता है। और उस स्थिति पर विजय प्राप्त कर सकता है।