इंसान की तलाश
नाम खो गया है पहचान खो गया है
न जाने किस अँधेरे में गुमनाम हो गया है
थी जिसमे इंसानियत कूट कूट के भरी
न जाने कहाँ वो इंसान खो गया है
मिट्टी के जर्रे जर्रे से पूंछता हूँ मैं
हर गली हर मुहल्ले में ढूंढता हूँ मैं
वह इंसान था कहाँ गया बतला दे कोई
यह सवाल हर किसी से सदा पूंछता मैं
पूंछता हूँ दर्द में कराहती आवाज से
पूंछता हूँ अतीत से भविष्य से और आज से
होती मिशाल जिसकी देवताओ के सामान थी
खो गया है कहाँ वो आज के समाज से
न झूठ था न द्वेष था न मन में कोई पाप था
न घमंड न पाखंड न ही कोई अभिशाप था
सत्य था ईमान था अहिंसा जिसकी चाह थी
सत्यवादी धर्मात्मा वह देव का प्रताप था
पापी से प्रेम उसकी पाप से घृणा रही
असहायों का कष्ट उसके मन की सदा पीड़ा रही
खुद कष्ट सहकर गैरो का जो दुःख मिटाता था सदा
दुःख में भी अधरों से उसके मुस्कान थी जाती नहीं
आज जो यह वक्त है क्या फिर से बदला जायेगा
राग द्वेष छल कपट पाखंड परशंताप मिट पायेगा
फिर से होगा रामराज्य और पाप धरा का कम होगा
क्या वह नेक इंसान जग में फिर से लौटकर आएगा
संतोष कुमार