सत्य और बिश्वास
सत्य पर बिश्वास करना और अपने बिश्वास को सत्य मानना दो अलग अलग बातें हैं। अक्सर बहस के मुद्दे भी इन्हीं बातों पर ही आधारित होते है। प्रायः जब दो लोगो के बीच बहस होती है तो यह बहस या झगड़ा किसी एक के झूठे या सच होने पर आधारित नहीं होता बल्कि यह दो लोगो के अलग अलग तरह के विश्वास का टकराव है।
अपने विश्वास को सत्य मानने वाले लोग अक्सर सत्य से वंचित रह जाते है उनका अपने विश्वास को सत्य मानने का विचार इतना अडिग होता है की ऐसे लोग अक्सर अंधविश्वास के शिकार हो जाते है। सवाल यहाँ यह पैदा होता है की ऐसे हालत में क्या करना चाहिए क्योंकि जीवन में अपने विश्वास को सत्य मानना भी जरुरी है और सत्य पर विश्वाश करना भी। तो इसका जबाब यह है कि ये दोनों ही आवश्यक हैं पर परन्तु दो अलग अलग परिस्थितियों में। जैसा की यह परम सत्य है की परिवर्तन ही शृष्टि का नियम है और इस परिवर्तन के साथ वहुत सी चीजें परिवर्तित होती रहती हैं।
सत्य झूठ में परिवर्तित हो जाता है और झूठ सत्य का चोला पहन लेता है और यह सब वस्तुतः मनुष्य के दिमाग की उपज होतीं हैं। इसलिए फैसले सिर्फ विश्वाश के भरोसे ही नहीं लेना चाहिए और सिर्फ सत्य को आधार बना कर लेना भी सही नहीं होता, क्योंकि झूठ को सत्य बनाकर पेश करना भी मानव के व्यवहार में शामिल है।