Sunday, October 26, 2025

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गुरु और उनके शिष्य की कहानी – ईमानदारी और सही कर्म की शिक्षा

गुरु और उनके शिष्य की कहानी – ईमानदारी और सही कर्म की शिक्षा

एक जंगल में गुरु जी का एक आश्रम था ,उनके पांच शिष्य थे। पांचो बड़े होनहार थे। एक बार शिष्यों के अंतर्मन को जानने के लिए गुरु जी ने उनकी परीक्षा लेने की सोची।

गुरु जी की परीक्षा: कबूतर की चुनौती

गुरु जी ने सभी शिष्यों को बुलाया और उनके हाथ में एक एक कबूतर पकड़ा दिए और बोले – तुम लोग अलग दिशाओ में जाओ और इस पक्षी को ऐसी जगह मारना जहाँ कोई भी न देख रहा हो। गुरु की आज्ञा के अनुरूप सारे शिष्य  पक्षी को लेकर अलग अलग दिशाओं में चल दिए।

कुछ देर बाद सारे शिष्य एक एक करके वापस आ गए। सबके हाथ खाली थे परन्तु एक शिष्य के हाथ में जिन्दा पक्षी था।

गुरुजी ने सबसे एक एक करके पूछना शुरू किया कि किसने कैसे पंक्षी को मारे –

चार शिष्यों की प्रतिक्रिया: पक्षी को मारने की कोशिश

पहले ने बताया – गुरु जी मैं जंगल में एक सुनसान बृक्ष के पीछे गया, चारों तरफ नजर दौड़ाई, मेरे सिवा वहां कोई नहीं था, मैंने पंछी को मार दिया उसे मरते हुए किसी ने नहीं देखा।

दूसरा ने बताया-गुरु जी मैं जंगल में एक पुराने कुए के अंदर गया वहां कोई नहीं था मैंने पंछी को मार दिया और वहां किसी ने नहीं देखा।

इसी प्रकार तीसरे और चौथे शिष्य ने भी अपनी बात बताई।

गुरु जी ने पांचवे शिष्य से पूछा – कि तुम बताओ, सबने पक्षी को मार दिया, तुमने क्यों नहीं मारा। एक तो तुम सबसे देर से वापस आये और पक्षी को मारा भी नहीं। क्या तुम्हे कोई ऐसी जगह नहीं मिली जहाँ तुम इसे मारते।

पाँचवें शिष्य की ईमानदारी

पाँचवें शिष्य ने जबाब दिया – गुरु जी मुझे क्षमा करें। मैंने बहुत कोशिश की कोई ऐसी जगह ढूढ़ने की जहाँ कोई देख न रहा हो, परन्तु ऐसी कोई जगह नहीं मिली।  इसी तलाश में मुझे वक्त भी ज्यादा लग गया।

यह बात सुनकर बाकी शिष्य हॅसने लगे। शिष्यों को शांत कराते हुए गुरूजी ने फिर पूछा-क्या सच में तुम्हे इस घने जंगल में ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहाँ कोई न देख रहा हो ?

शिष्य ने जबाब दिया -गुरू जी आपने कहा था की इस पक्षी को ऐसी जगह मरना जहाँ  कोई इसे देख न रहा हो। इस जंगल में बहुत सी ऐसी जगह है जो बहुत सुनसान है, जहां पहुंच कर जब मैं इस पक्षी को मारने चलता तो रुक जाता, वहां कोई नहीं था, परन्तु मैं था जो इसे देख रहा था। इसलिए मैं इस पक्षी को नहीं मार पाया।

गुरु जी की प्रसन्नता और पुरस्कार

यह बात सुनकर गुरु जी बड़े प्रसन्न हुए और उस शिष्य की पीठ थपथपाते हुए बोले तुम ही मेरे सबसे प्रिय शिष्य हो।

आज के वक्त में मनुष्य बुरे कर्म करने से नहीं बल्कि बदनामी से डरता है। जबकि अकेले में ही सही अपनी गलतियों को वह स्वयं देख रहा होता है। गलत विचार उसके मन में होते है, कुकृत्य करना चाहता है, और करता भी है, बस बचता फिरता है कि कही कोई उसे पहचान न ले। और फिर ऐसा ब्यक्ति ही लोगो के सामने आकर अपनी वाह-वाही भी लूटता है। जिस दिन मनुष्य बदनामी से नहीं बल्कि बुरे कर्म करने से डरने लगेगा, और स्वयं के प्रति ईमानदार हो जायेगा, उस दिन दुनिया से पाप का नमो निशां मिट जायेगा।

कहानी से शिक्षा :

  1. स्वयं के प्रति ईमानदार बनें – बुरे कर्म सिर्फ दूसरों की नजरों से बचने के लिए नहीं, बल्कि अपने अंदर सही और गलत का भान रखते हुए ही रोकने चाहिए।

  2. आत्म-जागरूकता सबसे महत्वपूर्ण है – अकेले में भी अपने विचारों और कर्मों पर नियंत्रण रखना सच्चे शिष्य या सच्चे इंसान की पहचान है।

  3. बुराई और पाप से डरना चाहिए, बदनामी से नहीं – केवल यह डरकर कर्म न करना कि लोग क्या सोचेंगे, पर्याप्त नहीं है; हमें अपने नैतिक मूल्य और अच्छाई के आधार पर निर्णय लेने चाहिए।

  4. सच्ची महानता भीतर से आती है – दूसरों की प्रशंसा या वाह-वाही के लिए नहीं, बल्कि अपने कर्मों की शुद्धता और सत्यनिष्ठा के लिए प्रयास करना चाहिए।

  5. नैतिक शिक्षा का महत्व – मनुष्य तभी आदर्श बन सकता है जब वह अपने अंदर की अच्छाई और बुराई को समझकर, सचेत रूप से अच्छे कर्म करता है।

कहानी हमें यह सिखाती है कि ईमानदारी और आत्म-जागरूकता सबसे बड़ी अच्छाई है। इंसान को केवल दूसरों की नजरों से डरकर बुरे कर्म नहीं करने चाहिए, बल्कि अपने अंदर की सही और गलत की समझ के आधार पर अपने कर्मों को नियंत्रित करना चाहिए।

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