प्रसन्नता
जीवन में सदैव खुश रहना चाहिए। अगर आप खुश नहीं हैं तो आपकी सफलता, आपकी कामयाबी का कोई महत्व नहीं हैं।
मनुष्य के पास हर प्रकार के संसाधन, नयी नयी तकनीक और हर प्रकार की सुख सुविधायें उपलब्ध होने के बावजूद प्रायः वह अप्रसन्न और नाखुश दिखाई पड़ता है, क्यों ? आखिर कार कभी वह इन्हीं चीजों को हासिल करने के लिए बहुत से रिश्ते नातों को छोड़ दिया करता था, उस वक्त की उन खुशियों को भी नजर अंदाज कर दिया करता था जो इन सपनों के ओहदों से छोटी लगती थीं, तो आज वह उन्हें पाने के बाद भी खुश क्यों नहीं हैं। यह सवाल अक्सर लोगों के दिलों दिमाग में आ ही जाता है, पर इसका सही जबाब शायद ही कोई जान पाता है।
संतुष्ट जीवन, सफल जीवन से बेहतर होता हैं क्योंकि सफलता का कोई अंत नहीं होता और आत्म संतुष्टि का कोई मापदंड नहीं होता। अपने लिए बहुत कुछ हासिल करना भी सदैव कम ही प्रतीत होता है औरो के लिए थोड़ा सा करना भी कहीं न कहीं आत्म संतुष्टि का बड़ा कारक बनता है। बशर्ते यह कार्य निःश्वार्थ भाव से किया गया हो।
जीवन में प्रशन्नता न होने का एक कारण यह भी कि आज के युग में मनुष्य पशुवत जीवन शैली अपनाने लगा है। पशुओं की भांति सिर्फ अपने लिए जीना सीख गया है। अपनी कमाई, अपना काम , अपना फायदा, अपनी सुरक्षा अपना परिवार वगैरह वगैरह, हमें किसी के नुकसान से, किसी की असुरक्षा से, किसी की परेशानी से कोई मतलब नहीं हैं, मतलब है तो सिर्फ अपने आप से। किसी और को पीड़ा हो रही है तो इससे हमें कोई फर्क तब तक नहीं पड़ता, जबतक की कोई हमारे दुम पर पैर न रख दे। और जब हमारे दुम पर पैर पड़ता है तो हम बिलबिला के उठ खड़े होते है और अपने दर्द का रोना रोने लगते हैं। क्या दर्द का मतलब तभी समझ में आता है जबतक खुद को दर्द न हो ? और यह सत्य भी है जो हमें इस दोहे के माध्यम से समझ में आता है –
“जाके पैर न फटी विवाई, सो क्या जाने पीर पराई ”
धर्म हमें पत्थर में भगवान है यह तो सिखाता है, पर इंसान में इंसान है यह बोध हमें कब होगा। जब तक हमारे मन में प्राणियों के प्रति प्रेम नहीं होगा, करुणा नहीं होगी, जीवोँ के प्रति दया नहीं होगी, मन में आत्म संतुष्टि नही होगी, चाहे हम कितने भी कामयाब क्यों न हो जाए, प्रसन्नता की उम्मीद करना व्यर्थ हैं।